*Maheshwari माहेश्वरी जाति का उत्पति दिवस : महेश नवमी है*
*माहेश्वरी जाति की उत्पति का इतिहास*…
संयोजन – वैंकटेश शारदा द्वारा
माहेश्वरी जाति मूलतः एक वणिक जाति है, परन्तु ऐसा माना जाता है कि इस जाति की उत्पति क्षत्रियों से हुई है l चूँकि माहेश्वरी जाति क्षत्रियों से उत्पन्न हुई है व इस जाति की वंशावलियां भी बही-लेखकों द्वारा लिखी गई है और वही-लेखक ही ‘जागा’ कहलाते हैं l सामान्य व्यक्ति की पूर्ण वंशावली सुरक्षित रखने की परम्परा माहेश्वरी जाति के लिये बहुत गर्व की बात है l इस जाति का एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है l स्व. शिवकरण जी दरक ने इस जाति के इतिहास का विस्तृत एवं व्यवस्थित अध्ययन कर उसे लिपिबद्ध करने का अत्यंत प्रसंसनीय कार्य किया है l
माहेश्वरी जाति का उत्पति-प्रकाश…..
माहेश्वरी जाति एक अत्यंत ही प्राचीन जाति है l प्रचलित मान्यतानुसार माहेश्वरी जाति की उत्पति का समय युधिष्टर सम्वंत 9 की ज्येष्ठ शुक्ल नवमी के दिन माना जाता है l
कोलकाता के श्री गौरीशंकर जी सारदा की अगस्त-1996 की लिखी पुस्तक के मुताबिक डीडवाना के मन्दिर से प्राप्त जागा नन्दलाल केशरीमल की बहियों के अनुसार माहेश्वरी जाति के उदभव का समय श्री रामचन्द्र जी के लगभग 300-400 वर्षों के अन्दर होना ही समझ में आता है l माहेश्वरी जाति की उत्पति के विषय में श्री मगनीराम जी जागा ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि विक्रमादित्य से 3984 वर्ष पूर्व यानी आज से 6056-6057 वर्ष पहले (अर्थात ई.पू. 4041 में) भगवान महेश का प्रादुर्भाव और उनकी कृपा से क्षत्रियों से माहेश्वरी वैश्य बने l
श्री रामचन्द्र जी एक ऐतिहासिक पुरुष थे, उनका जन्म आज से 6455-6456 वर्ष पहले हुवा था l श्री रामचन्द्र जी के वंश में ही उनकी आंठवीं, नौवीं और दसवीं पीढ़ी के कुछ लोग क्षत्रिय धर्म छोड़कर वैश्य बन गये l उसी समय राजा खडगल सेन का खंडेला में राज्य करना माहेश्वरी उत्पति की कथा के अन्तर्गत आता है l
माहेश्वरी जाति की उत्पति कथा…
जगाओं द्वारा यह बताया गया है कि विक्रमादित्य से 3985 वर्ष पूर्व द्वापर युग में शान्तनु के राज्य के समय खण्डेला में खडगल सेन नाम के एक राजा राज्य करते थे l राजा खडगल सेन के सूर्य कौर और चन्द्र कौर नाम की दो रानियां थी l राजा की आयु करीब 50 वर्ष हो गई थी पर उनके कोई पुत्र नहीं हुवा, इस कारण राजा दुखित था l राजा ने अपने सभी प्रमुख मंत्रियों विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर अपना दुःख सुनाया और पुत्र प्राप्ति के लिये उपाय बताने को कहा l इस पर मुनि याज्ञवल्क्य ने पुत्र प्राप्ति के लिये राजा को उपाय बताया – मालकेतु के पहाड़ पर पीपल के एक सूखे पेड़ के नीचे लिंग स्वरुप नीलवर्ण के महादेव विराजमान है l उस स्थान से सात हाथ की दुरी पर भूमि के नीचे महादेव जी का मन्दिर है, जिसकी 200 वर्षों से पूजा नहीं हुई है l आप ब्राह्मणों के साथ वहां जाकर उस मन्दिर का जीर्णोंद्वार कीजिये और फिर रूद्र यज्ञ करिये l ऐसा करने पर शंकर जी की कृपा से आपको पुत्र की प्राप्ति होगी l
राजा ने मुनि के निर्देशों के अनुसार कार्य किया l मन्दिर का उद्धार कर विधिपूर्वक पूजन वगेरह करवाया व बहुत दान-पुण्य किया l प्रसन्न होकर भगवान शंकर-पार्वती प्रकट हुवे और राजा को उसकी मनोकामना पूछी l राजा ने हाथ जोड़कर कहा कि भगवन अगर आप प्रसन्न है तो मुझे एक पुत्र देने की कृपा करें l भगवान ने तथास्तु कहा और अंतर्ध्यान हो गये l राजा बहुत खुश हुवा और ब्राह्मणों को बहुत दान दिया l कुछ समय बाद रानी ने गर्भ धारण किया और यथा समय पुत्र को जन्म दिया l सारे राज्य में आनन्द छा गया l
राजा ने ज्योतिषियों को पुत्र को जन्म कुंडली देखकर फलादेश बताने की प्रार्थना की l मुनि श्रेष्ठ जावालि ने कहा कि हे राजा, आपका पुत्र रूपवान, गुणवान, बलवान, राजनीति विशारद, तेजस्वी, लक्ष्मीवान, दानशील, सत्यवादी, प्रजापालक एवं सभी गुणों से युक्त होगा l युवावस्था में कुछ अनिष्ट होगा परन्तु अन्त में परिणाम सुखकारी होगा l ब्राह्मणों ने राजा को उसे सोलह वर्ष तक उत्तर दिशा में मत जाने देना और जो उत्तर दिशा में ‘सूर्य कुण्ड’ है, उसमें स्नान मत करने देना l यदि वह ब्राह्मणों से द्वेष नहीं करेगा तो चक्रवर्ती राज करेगा, अन्यथा इसी देह से पुनर्जन्म लेगा l इस प्रकार ब्राह्मणों का आशीर्वाद प्राप्त कर राजा बड़ा प्रसन्न हुवा l राजा ने उनको वस्त्र, आभूषण, गाय आदि देकर प्रसन्नचित विदा किया l
राजकुमार का नाम सुजानसेन रखा गया था, वह चन्द्रमा की कला की भांति बढ़ने लगा l शुभ मुहुर्त मे राजा ने विद्यारम्भ करवा दिया, विलक्षण राजकुमार ने सभी विद्याओं को शिख लिया l सात वर्ष का होते ही राजकुमार घोड़े पर चढ़ना, शस्त्र चलाना सीख गया l जब वह बारह वर्ष का हुवा तो शत्रु लोग उससे डरने लगे l वह चौदह विद्या पढ़कर होशियार हो गया l राजा उसके काम को देखकर संतुष्ट हुए l राजा ने इस बात का ध्यान रखा कि सुजान कुँवर उत्तर दिशा में न जाने पाये l
राजकुमार सुजानसेन का विवाह विजया नगरी के राजा युद्धवीर की राजकुमारी चन्द्रावती के साथ बड़ी धूमधाम से कर दिया गया l मन्त्रियों के सुझाव के अनुसार राजा खडगल सेन ने अपने पुत्र सुजान कुँवर को युवराज बना दिया l सुजान सेन ने राज्य का कार्य बहुत अच्छी तरह सम्भाल लिया l चन्द्रावती भी अपने पति को हर प्रकार से प्रसन्न और सन्तुष्ट रखती थी l
एक बार सुजान सेन अपने उमरावों को साथ लेकर आखेट पर निकले l ये लोग उतर के द्वार से निकले थे l सुजान सेन के साथ 72 उमराव थे, साथ ही खडगल सेन के तैनात किये हुवे 11 उमराव और थे जो सुजान सेन की रक्षा के लिये खास तौर पर थे l
सुजान सेन एक हिरण को देखकर उसका पीछा करते बहुत दूर आगे वन में निकल गया l आगे जाते हिरण लापता हो गया और सुजान सेन बहुत थक कर वहीँ बैठ गया l उसे बहुत अधिक प्यास लग गई और उसने उमरावों को पानी पिलाने को कहा l उमरावों ने कहा यहां तो पानी मिलना मुश्किल है l फिर उमरावों ने एक ऊँचे वृक्ष पर चदकर देखा तो उनको कुछ दूर आगे बगुले नज़र आये l उमरावों ने सोचा बिना पानी के बगुले नहीं दिखते, अतएव वहां पानी अवश्य ही मिलेगा l सब आगे बढे और सूर्य कुण्ड के पास पहुंच कर जल गौमुख से गिरता सुहावना दृश्य देखकर मुग्ध हो गये l यह स्थान मालकेतु पर्वत के पास था l
राजकुमार एवं उमरावों ने जल पीकर प्यास बुझाई और विश्राम करने लगे l इधर कुछ उमरावों ने अपने रक्त रंजित अस्त्र-शस्त्रों को सूर्य कुण्ड में धो डाला, जिससे पानी दूषित और लाल हो गया l इतने में एक ऋषि यज्ञ के लिये जल भरने को सूर्य कुण्ड पर आये, पर दूषित जल देखकर अत्यंत कुपित हुवे l उन्हें यह आशंका हुई की ये दुष्ट लोग यज्ञ विध्वंश कर देंगे l मुनि ने अपनी तपस्या के बल से यज्ञ भूमी में साथ हाथ ऊंचा चार कोस के घेरे का एक द्वारहीन लौह दुर्ग बना दिया और मुनि वहां से चले गये l
उसी समय एक बड़ा भयंकर शब्द हुवा, जिसके कारण राजकुमार सुजान सेन ने रह समझा कि दूसरी कोई सेना आक्रमण करने वाली है l तब उसने अपने सभी उमरावों तथा अनुचरों से कहा कि जिसे अपने प्राणों का मोह है वे अपने घरों को लौट जावे और जो क्षत्रिय अपनी वीरता के साथ जीना चाहते हैं, वे मेरे साथ आवे l
सुजान सेन ने अपने उमरावों को दुर्ग भेद कर अन्दर प्रवेश करने का उपाय ढूंढने को कहा, पर कोई द्वार नहीं होने के कारण प्रवेश करने का कोई उपाय नहीं था l अंत में यह सोचा गया कि पुरुषार्थ पूर्वक छलांग लगाकर ही प्रवेश हो सकेगा l सुजान सेन उमरावों सहित बड़ी जोर से छलांग लगाकर यज्ञ स्थल पहुंच गये l मुनियों ने जो कि बहुत वर्षों से कठिन यज्ञ कर रहे थे, उन सैनिकों को देखकर श्राप दे दिया कि यज्ञ विध्वंश करने आये हुवे तुम सभी मुर्ख जड़ता को प्राप्त हो जाओ l मुनि के श्राप के प्रभाव से राजकुमार सुजान सेन अपने उमरावों सहित तुरन्त ही पत्थर के समान हो गये l जो कायर लोग भाग चले थे, उन्होंने राज्य में पहुंच कर सारा वृतान्त कह सुनाया l
रानी चन्द्रावती के पूछने पर उनको भी सारी बाते बता दी गई l यह सुनकर चन्द्रावती बहुत चिन्तित हुई और खोज के लिये दूतों को भेजा, किन्तु जिस स्थान पर राजकुमार को छोड़कर गये थे, उससे आगे कोई न गया l वे लोग वापस लौट आये l जब राजकुमार का कोई पता नहीं लग पाया तो चन्द्रावती रोटी बिलखती भूमि पर गिर पड़ी l उमरावों की पत्नियां भी दुखी होकर रो रही थी फिर भी चन्द्रावती ने हिम्मत राखी और पुनः खोज कराने में सचेस्ट हो गई l राजा खडगल सेन ने इस खबर को सुनकर प्राण त्याग दिये और उसकी रानियां उसके साथ सती हो गई l
इधर चन्द्रावती के पिता राजा युद्धवीर ने अपनी बेटी के दुःख को सुनकर अपने पुत्र जयन्त को अपनी पुत्री के पास भेजा कि इस दुःख के समय उसकी हर प्रकार से मदद करे और राजकुमार सुजान सेन की खोज का भी प्रयास पूरी तरह करे l जयन्त अपनी सेना सहित अपनी बहन चन्द्रावती के पास राजाविहीन खण्डेला नागा में पहुंचा l जयन्त ने बहन को हर प्रकार सांत्वना दी और सुजान सेन की खोज पुन: प्रारम्भ कर दी l जयन्त ने खण्डेला राज्य के प्रशासन का काम भी सम्भाल लिया l
एक दिन संयोग वश मुनि जावालि खण्डेला पहुंच गये l मुनि को बहुत आदर और सम्मान पूर्वक बैठाकर जयन्त ने उन्हें बताया कि राजकुमार सुजान सेन एक दिन शिकार खेलने को अपने उमरावों सहित निकले थे और सौगन्धिक वन में पहुंच गये l वहां जल पीने को वो सूर्य कुण्ड में पहुंच गये व आगे की सारी कहानी सुनाई l उसके बाद राजकुमार सुजान सेन के बारे में कोई भी खबर नहीं मिल सकी है l मेरी बड़ी बहन चन्द्रावती बहुत दुखी है, आप भूत और भविष्य को जानने वाले ज्ञानी है l कृपया आप यह बताने का कष्ट करें कि अभी राजकुमार सुजान सेन कहां और किस स्थिति में है ?
यह सुनकर मुनि श्रेष्ठ जावलि ने कहा कि सारी बातें चन्द्रावती के सामने बता दूंगा l जयन्त ने मुनि श्रेष्ठ जावालि को चन्द्रावती के पास पहुंचा दिया l चन्द्रावती ने मुनि को प्रणाम कर आदर पूर्वक बैठाया और अपने पति के बारे में पुचा कि मेरे पति जीवित है या नहीं ये बताने की कृपा करें l
मुनि श्रेष्ठ जावालि ने कहा हे देवी, पहले जब तुम्हारे पति का जन्मोत्सव हो रहा था, उस समय में राजा खडगल सेन के पास आया था l मेरे द्वारा बताये अनुसार राजा ने सभी जातक कर्म किये थे l मैंने बालक के गुण-दोष भी बताये थे और यह भी कहा था कि युवावस्था में कुछ अनिष्ट होगा, पर अंत में उसमे भी सुखकर घटना होगी l उस समय मैंने स्पष्ट कुछ नहीं कहा था पर आज जो अनिष्ट हुवा है, सो स्पष्ट बतलाता हूं l
जब सुजान कुँवर सूर्य कुण्ड पर पहुंचे, उस समय उसके किसी उमराव ने नासमझी में रक्त रंजित अस्त्र-शस्त्र सूर्य कुण्ड में धोकर जल को दूषित कर दिया l उसी समय एक ऋषि जल लेने सूर्य कुण्ड आये और जल को दूषित देखकर क्रोधित हो गये l वे वापस अपने स्थान को चले गये, जहां मुनि लोग यज्ञ कर रहे थे l इस यज्ञ को शतवार्षिकी माहेश्वर यज्ञ कहते हैं l उस क्रोध युक्त मुनि यज्ञ विध्वंस हो जाने की आशंका की अपने यज्ञ की रक्षा के लिये तपोबल से यज्ञ भूमि में अत्यंत दुष्कर लोहे का एक द्वारहीन दुर्ग स्थापित किया l उस समय एक भयंकर शब्द हुवा l सुजान कुँवर ने अनुमान लगाया कि किसी ने युद्ध की इच्छा से यह घोर शब्द किया है और युद्ध करने का निश्चय कर लिया l
अपने उमरावों को साथ लेकर सुजान कुँवर उसी ओर आगे बढ़ा, जहां से भयंकर आवाज आई थी l वहां अत्यंत दुष्कर द्वारहीन लोहे के किले को देखकर छलांग लगाकर उसमे प्रवेश करने की कोशिश में यज्ञ भूमि में गिर पड़ा l तपस्वी मुनियों ने उसे श्राप दे दिया कि अपने उमरावों सहित इसी समय पाषाणवत हो जाओ l वैशाख मॉस की पूर्णिमा को जब कि वृहस्पति मेष राशी में थे, सुजान कुँवर अपने 72 उमरावों सहित जड़ हो गये l बारह वर्ष बाद कार्तिक मॉस की शुक्ल पक्ष की एकादशी के शुभ दिन में वृहस्पति जब पुन: मेष राशी में स्थित होंगे, उस समय भगवान शंकर प्रकट होंगे और तब उनकी कृपा से सुजान कुँवर उमरावों सहित फिर से चेतन हो जायेंगे l उस समय मैंने राजा खडगल सेन को बहुत संक्षेप में कहा था, उस बात को आज पूरी तरह बता दिया है l मुनि जावालि ने यह भी कहा कि खडगल सेन के छोटे भाई भानुसेन के पौत्र दण्डधर का राज्याभिषेक राज और वंश चलाने के लिये कर दो और चन्द्रावती को उन्होंने महल में रहते हुवे उमरावों की स्त्रियों के साथ ॐ नम: शिवाय का जप करते हुवे भगवान शंकर की आराधना करने को कहा l
मुनि जावालि ने कहा कि भगवान शंकर को प्रसन्न करो, वे यथा समय प्रकट होंगे और सुजान कुँवर तथा उमरावों को जीवित कर देंगे l उसके बाद सुजान कुँवर तथा उमरावों को क्षत्रिय धर्म त्याग देना पड़ेगा l ऐसा कहकर मुनि चले गये, मुनि के वचन सुनकर चन्द्रावती को कुछ धीरज बंधी व मन में आशा का संचार हुवा l
चन्द्रावती ने अपने छोटे भाई जयन्त को कहकर दण्डधर का राज्याभिषेक करवा दिया और चन्द्रावती का भाई जयन्त भी बहन से आज्ञा लेकर राजा युद्धवीर के पास चला गया l जयन्त के जाने के बाद चन्द्रावती स्थिर चित होकर भगवान शंकर को प्रसन्न करने में लगी रही l
इस प्रकार बारह वर्ष कठोर तपस्या करने पर एक दिन भगवान शंकर उसके समक्ष प्रकट हुवे चन्द्रावती ने विनय पूर्वक सब उमरावों की पत्नियों सहित भगवान शंकर को प्रणाम किया l भगवान शंकर ने कहा कि कल प्रात: तुम्हारे पति सुजान कुँवर सभी उमरावों सहित जीवित होकर लौट आयेंगे l अब वे क्षत्रिय धर्म त्याग कर वैश्य हो जायेंगे l चन्द्रावती को ऐसा वरदान देकर भगवान शंकर अंतर्ध्यान हो गये l चन्द्रावती एवं अन्य स्त्रियों ने अनुष्ठान संपन्न किया l
उधर भगवान शंकर और पार्वती घूमते-घूमते उधर ही आ निकले जहां राजकुमार अपने 72 उमरावों और घोड़े सहित पत्थर के होके पड़े थे l पार्वती जी ने भगवान शंकर से इन पत्थर की मूर्तियों के बारे में पूछा, तब शंकर ने इन मूर्तियों का पूर्ण इतिहास पार्वती जी को समझाया l
पार्वती जी ने व्यथित होकर भगवान शंकर से इनको शाप मुक्त करने की प्रार्थना की l इस पर भगवान शंकर ने उनकी मोह निद्रा छुड़ाकर उनको चेतन किया l सब चेतन हो भगवान शंकर को प्रणाम करने लगे l राजकुमार जैसे ही अपने होश में आया, श्री पार्वती जी के स्वरुप से लुभायमान हो गया l यह देखकर पार्वती जी ने उसको शाप दिया कि हे कुकर्मी, तू भीख मांगकर खायेगा और तेरे वंश वाले हमेशा भीख मांगते रहेंगे l वे ही आगे चलकर जागा के नाम से विदित हुवे l 72 उमराव बोले – हे भगवान ! अब हमारे घर-बार तो नहीं रहे, हम क्या करें ? तब भगवान शंकर ने कहा, तुमने पूर्वकाल में क्षत्रिय होकर स्वधर्म त्याग दिया, इसी कारण तुम क्षत्रिय न होकर अब वैश्य पद के अधिकारी होंगे l जाकर सूर्यकुंड में स्नान करो l सूर्यकुंड में स्नान करते ही तलवार से लेखनी, भालों की डांडी और ढालों से तराजू बन गई और वे वैश्य बन गये l भगवान महेश के द्वारा प्रतिबोध देने के कारण ये 72 उमराव ‘माहेश्वरी वैश्य’ कहलाये l
जब यह खबर ऋषि मुनियों को मिली कि भगवान शंकर ने 72 उमरावों को शाप मुक्त किया है तो उन्होंने आकर भगवान शंकर से प्रार्थना की कि हे भगवान ! आपने इनको शाप से तो मुक्त कर दिया लेकिन हमारा यज्ञ कैसे पूरा होगा ? तब भगवान शंकर ने उन उमरावों को आदेश दिया कि आज से यह ऋषि तुम्हारे गुरु हुवे, इन्हें तुम अपना गुरु मानना l भगवान शंकर ने ब्राह्मणों से कहा कि इनके पास देने को इस समय कुछ नहीं है परन्तु इनके घर में मंगल उत्सव होगा तब यथा शक्ति द्रव्य दिये जायेंगे, तुम इनको स्वधर्म में ही चलने कि शिक्षा दो l ऐसे वर देकर भगवान शंकर और पार्वती जी वहां से अंतर्ध्यान हो गये l ब्राह्मणों ने इनको वैश्य धर्म धारण कराया l तब 72 उमराव इन 6 ऋषेश्वरों के चरणों में गिर पड़े l 72 उमरावों में से एक-एक ऋषि के बारह-बारह शिष्य हुवे l वही अब यजमान कहे जाते हैं l
कुछ काल के पीछे यह सब खंडेला छोड़कर डीडवाना आ बसे l वे 72 उमराव खांप के डीड माहेश्वरी कहलाये l यही दिन जेठ सुदी नवमी का दिन था, जब “माहेश्वरी वैश्य” कुल कि उत्त्पति हुई l दिन-प्रति-दिन यह वंश बढ़ने लगा l जो 72 उमराव थे उनके नाम पर एक-एक जाती बनी जो 72 खाप (गोत्र) कहलाई l फिर एक-एक खाप में कई नख हो गये जो अपने काम के कारण, गाँव व बुजुर्गो के नाम बन गये है l पुनः माहेश्वरी मध्य भारत और भारत के कई स्थानों पर जाकर व्यवसाय करने लगे l आज पूरी दुनिया में ‘माहेश्वरी समाज’ की एक अलग पहचान है l