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IAS, IPS अधिकारियों के बच्चों को रिजर्वेशन मिलना क्या सही है?’, सुप्रीम कोर्ट में दलित जज ने पूछा सवाल

‘IAS, IPS अधिकारियों के बच्चों को रिजर्वेशन मिलना क्या सही है?’, सुप्रीम कोर्ट में दलित जज ने पूछा सवाल

दिल्ली से वेदप्रकाश रस्तोगी के साथ भोपाल से राधावल्लभ शारदा द्वारा संपादित रपट
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (6 फरवरी, 2024) को कहा कि वह अपने 2004 के एससी-एसटी आरक्षण को लेकर दिए गए फैसले की फिर से समीक्षा करेगा. इस फैसले में कहा गया था कि राज्यों के पास आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिए सब-कैटेगरी बनाने का अधिकार नहीं है. मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली सात जजों की संविधान पीठ ने स्पष्ट किया कि वह आंकड़ों से संबंधित तर्कों में नहीं जाएगी जिसके कारण पंजाब सरकार ने आरक्षण के अंदर 50 प्रतिशत कोटा प्रदान किया था. इस मामले की सुनवाई के दौरान ही जस्टिस बीआर गवई ने नौकरशाहों के बच्चों को आरक्षण मिलने को लेकर सवाल किया.
साल 2006 में पंजाब की कांग्रेस सरकार ने वाल्मीकी और मजहबी (सिख) समुदाय को महादलित का दर्जा दिया था. इसके तहत अनुसूचित जनजाति के 15 फीसदी आरक्षण में से आधा हिस्सा उनके लिए रिजर्व रखने का फैसला किया गया. इस तरह पंजाब में दो समुदायों को अनुसूचित जाति में प्राथमिकता मिली, लेकिन साल 2010 में पंजाब हाई कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया. 2011 में पंजाब सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. राज्य सरकार ने दलील दी है कि पिछड़े वर्गों में सबसे पिछड़ों की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें रोजगार के अवसरों का लाभ उठाने के लिए साधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दाखिल 23 याचिकाओं पर सुनवाई चल रही है, इनमें पंजाब सरकार की याचिका भी शामिल है. 6 फरवरी को इन याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की गई.
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस बी आर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी, जस्टिस पंकज मिथल, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र मिश्रा की बेंच ने मंगलवार (6 फरवरी, 2024) को सुनवाई की. इस दौरान, जस्टिस गवई ने सवाल किया, ‘अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति समुदाय का शख्स आईएएस, आईपीएस जैसी केंद्रीय सेवाओं में शामिल होता है तो उसको सर्वोत्तम सुविधाओं का लाभ मिलता है. फिर भी उसके बच्चे और उनके बच्चों को आरक्षण मिलता रहता है. क्या यह जारी रहना चाहिए?’ जस्टिस बी आर गवई भी दलित हैं और अगले साल मई में चीफ जस्टिस बनने जा रहे हैं. पंजाब सरकार ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का 2004 का फैसला उस पर लागू नहीं होता है.
पंजाब सरकार की तरफ से निधेश गुप्ता ने कहा कि पिछड़ों में अति पिछड़ों की पहचान होनी चाहिए और उन्हें रोजगार के अवसरों का लाभ उठाने के लिए साधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए. वकील ने कहा कि पंजाब की कुल आबादी में से 33 फीसदी अनुसूचित जाति के लोग हैं. इनमें से 29 फीसदी वाल्मीकि और मजहबी सिख हैं. उन्होंने कहा कि कुल 43 फीसदी अनुसूचित जाति के लोगों का राज्य सरकार में 81 फीसदी एससी पदों पर कब्जा है.
हाई कोर्ट ने पंजाब कानून की धारा 4(5) को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया था जो वाल्मीकियों और मजहबी सिखों को अनुसूचित जाति के 15 फीसदी आरक्षण का 50 फीसदी हिस्सा देती थी. कोर्ट ने कहा था कि यह प्रावधान ई वी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के 2004 के पांच सदस्यीय संविधान पीठ के फैसले का उल्लंघन करता है. चिन्नैया संबंधी फैसले में कहा गया था कि अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता के अधिकार) का उल्लंघन करेगा
पंजाब सरकार ने हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए 2011 में उच्चतम न्यायालय का रुख कर कहा था कि शीर्ष न्यायालय का 2004 का फैसला उस पर लागू नहीं होता है. पंजाब सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस (अब सेवानिवृत्त) अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली पांच सदस्यीय पीठ ने 27 अगस्त 2020 को चिन्नैया फैसले से असहमति जताई थी और इस मामले को सात सदस्यीय वृहद पीठ के पास भेज दिया था. केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित उच्च शिक्षण संस्थानों में 22.5 फीसदी उपलब्ध सीट अनुसूचित जाति और 7.5 फीसदी सीट अनुसूचित जनजाति (एसटी) के छात्रों के लिए आरक्षित हैं. यही मानदंड सरकारी नौकरियों के मामले में भी लागू होता है. पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में अनुसूचित जनजाति की आबादी नहीं है.

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