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नाबदान के मुहाने पर अमजद के विराजित होने का “सुख

नाबदान के मुहाने पर अमजद के विराजित होने का “सुख”

रत्नाकर त्रिपाठी

अमजद खान को जब ‘महासंग्राम’ में व्हील चेयर पर बैठे देखा था, जब मैं जानता था कि फिल्म के उस किरदार की यह जगह उनके शरीर की अवस्था की वजह से चुनी गई होगी। क्योंकि तब तक वह बेहद मोटापे का शिकार हो चुके थे। निश्चित ही ‘शोले’ की उन गूंजती वादियों से लेकर ‘तीसरी आंख’ के उस गुफानुमा अड्डे के सरदार अमजद को यूं व्हील चेयर पर देखना दुखद अनुभव होता, लेकिन मेरे लिए यह सुखद बात थी। क्योंकि ‘महासंग्राम’ के निर्देशक ने अमजद को व्हील चेयर पर नहीं, बल्कि उस मुकाम पर बिठाया था, जिसके वह सादर हकदार थे। कैसे? यह जानने के लिए मेरे साथ भोपाल की उस संगम टॉकीज में चलिए, जहां महेंद्र संधू की फिल्म ‘कौन कितने पानी में’ का पहले दिन का पहला शो चल रहा है। मैं वहां सिर्फ इसलिए हूं कि फिल्म में अमजद हैं, लेकिन अमजद वहां हैं ही नहीं। वहां तो एक कम दिमाग वाला वह चरित्र है, जो ‘शोले’ के ‘गब्बर’ से लेकर महासंग्राम के माफिया सरगना ‘बड़ा गोदा’ के पांव की सबसे छोटी अंगुली के नाखून बराबर भी वजूद नहीं रखता है। इसीलिए ‘लव स्टोरी’ ‘कुर्बानी’ ‘हम से बढ़ कर कौन’ ‘चमेली की शादी’ और ‘मकसद’ जैसी फिल्मों में अमजद की प्रतिभा का विदूषक के रूप में दुरुपयोग मेरे लिए बहुत तकलीफ देने वाला मामला है। ऐसे जोकर बनकर उछल कूद करने से बेहतर तो यही था कि अमजद को व्हील चेयर पर बिठा दिया जाए, जहां वह अपने लिए जोरदार किरदार को निभाते हुए अपनी क्षमताओं से मुझ जैसे दर्शकों के दिलो-दिमाग को खुद के पांव पर खड़े होने के सुखद सत्य का सामीप्य दे सकें ।

अद्भुत अभिनय क्षमता के धनी थे अमजद। इंसान भी उतने ही अच्छे। दुर्भाग्य से अच्छाई वाला यह भाव बहुत दुर्भाग्यजनक अनुभवों से आ पाता है। इसीलिए जब एक साक्षात्कार में अमजद फिल्म इंडस्ट्री के मौकापरस्त लोगों के बारे में अपने तजुर्बे साझा करते हैं, तब यह सोचकर अफ़सोस ही किया जा सकता है कि एक और अच्छा इंसान कई बुरे इंसानों की करतूतों का शिकार हुआ है। बदकिस्मती से बॉलीवुड के भीतर वह साहस कम ही दिखता है, जिनमें अमजद जैसे किसी व्यक्तित्व के लिए मुख्य भूमिकाओं वाली फिल्म का निर्माण किया जाए। वरना तो ‘शतरंज के खिलाड़ी’ ‘लेकिन’ और ‘मीरा’ देख लीजिए। ये उस हांडी के तीन चावल मात्र हैं, जिनमें अमजद के सशक्त अभिनय, संवाद अदायगी और किरदार में जान फूंक देने वाली त्रिवेणी का अहसास साफ़ किया जा सकता है। लेकिन परनाले में ही पवित्र स्नान का घटिया सुख मिल रहा हो तो फिर संगम में स्नान के पुण्य की भला क्या हैसियत है? ऐसे में धन्यवाद के पात्र हैं वह राकेश कुमार, जिन्होंने अमजद को मुख्य भूमिका में रखकर फिल्म ‘कमांडर’ का निर्माण किया, लेकिन यहां भी वैचारिक दरिद्रता ऐसी कि फिल्म की कहानी हॉलीवुड के एक चित्र से चुराई गई और नकल में अकल न लगाने की दुर्भाग्यजनक फितरत के चलते यह फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर कोई कमाल नहीं दिखा सकी। अमजद की प्रतिभा के साथ मुख्य भूमिका वाला न्याय न कर सकी।

खैर, फिल्म बनाने वाले जानते हैं कि उन्हें क्या करना है। लिहाजा महज मुनाफा देखने वाली भीड़ में इस तरीके के जज़्बात का कोई महत्व नहीं है। लेकिन एक बहुत छोटी-सी दुनिया भी है। जहां एक कोई ऐसी शख्सियत है, जिन्होंने अपने ब्लॉग में हिंदी फिल्मों के गीतों पर अद्भुत काम किया है। कई बरस पहले मैं उस ब्लॉग पर गया था। उनसे ऑनलाइन संवाद में मैंने एक फिल्म ‘जुल्म की पुकार’ का जिक्र किया। कहा कि इसमें अमजद खान और कादर खान भी हैं। वो सज्जन बोले, ‘यदि अमजद हैं, तो फिर आज ही यह फिल्म देखूंगा।’ यह हमारा आख़िरी संवाद था। हम ई मेल के जरिए बात करते थे। इस बातचीत के बाद उन्होंने मुझे ब्लॉक कर दिया। मुझे पता है कि ऐसा किसलिए किया गया। गलती मेरी थी। भूलवश मैंने उन्हें यह नहीं बताया था कि फिल्म में उन्हें अमजद नहीं, बल्कि उनकी वह पीड़ादायी परछाई मिलेगी, जो मुझे ‘कौन कितने पानी में’ जैसी फिल्मों में भुगतना पड़ी थी। मुझे यकीन है कि ‘जुल्म की पुकार’ देखने के बाद उन सज्जन को मेरी एक भूल के चलते जो तकलीफ हुई होगी, उसने ही उन्हें फिर मुझसे हमेशा के लिए दूर कर दिया। यही वह छोटी-सी दुनिया है, जिसके विचारों/विलाप/विनती की फिल्म इंडस्ट्री में कोई जगह नहीं है। उनकी जगह केवल उन थियेटर्स की खाली कुर्सियों पर है, जहां उम्दा फ़िल्में दम तोड़ती हैं और फिर यह होता है कि भोपाल की भारत टॉकीज से ‘शतरंज के खिलाड़ी’ जैसी महान रचना केवल तीन दिन में हटा दी जाती है। इस बेहद छोटे संसार के मुझ जैसे जीव की इतनी हैसियत भी नहीं कि हमें नक्कारखाने की तूती जितना कद भी मिल सके। लेकिन बोलना तो होगा ही। क्योंकि यह उस इंडस्ट्री का मामला है, जिस पर कमोबेश हमेशा ही ‘नाकारा’ सोच का ही कब्जा रहा है और जहां अमजद जैसी प्रतिभाओं को समझकर उन्हें यथोचित स्थान देने का समय किसी के भी पास नहीं है।

अमजद चाय के बहुत शौक़ीन थे। कुछ लोग आलीशान होटलों में इस पेय के लिए हजारों रुपए दे देते हैं और बहुत अधिक लोग खोमचों पर आधा सैंकड़ा से भी कम रकम में इसका सेवन करते हैं। अमजद का कद किसी बेहद महंगे होटल की चाय जैसा ही था, लेकिन बॉलीवुड की चालू चाय के पास भला वह छन्नी कहां होगी, जिसमें अमजद जैसी ठोस प्रतिभाओं को बचाकर शेष हल्केपन को किसी नाबदान में उसकी सही जगह पर भेजा जा सके? धन्यवाद मुकुल आनंद जी कि आपने उस नाबदान के मुहाने पर ही सही, लेकिन एक व्हील चेयर पर अमजद जी को विराजित कर मुझ जैसे कुछ लोगों को बड़ी राहत प्रदान की थी। हमारे हिस्से तो इतने ही सुख हैं, और हम इसी में खुश हैं। इसके अलावा और किया भी क्या जा सकता है?

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